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न ता न॑शन्ति॒ न द॑भाति॒ तस्क॑रो॒ नासा॑मामि॒त्रो व्यथि॒रा द॑धर्षति। दे॒वाँश्च॒ याभि॒र्यज॑ते॒ ददा॑ति च॒ ज्योगित्ताभिः॑ सचते॒ गोप॑तिः स॒ह ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

na tā naśanti na dabhāti taskaro nāsām āmitro vyathir ā dadharṣati | devām̐ś ca yābhir yajate dadāti ca jyog it tābhiḥ sacate gopatiḥ saha ||

पद पाठ

न। ताः। न॒श॒न्ति॒। न। द॒भा॒ति॒। तस्क॑रः। न। आ॒सा॒म्। आ॒मि॒त्रः। व्यथिः॑। आ। द॒ध॒र्ष॒ति॒। दे॒वान्। च॒। याभिः॑। यज॑ते। ददा॑ति। च॒। ज्योक्। इत्। ताभिः॑। स॒च॒ते॒। गोऽप॑तिः। स॒ह ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:28» मन्त्र:3 | अष्टक:4» अध्याय:6» वर्ग:25» मन्त्र:3 | मण्डल:6» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब कौन उत्तम दान है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (याभिः) जिन विद्याओं से यजमान (देवान्) विद्वानों को (यजते) मिलता और (ददाति) देता (च) भी है तथा (ज्योक्) निरन्तर (इत्) ही (ताभिः) उन विद्याओं के (सह) साथ (गोपतिः) गौओं का स्वामी (सचते) मिलता है (न) न (आसाम्) इनका (आमित्रः) शत्रु और (व्यथिः) पीड़ा (च) भी (आ, दधर्षति) तिरस्कार करती है (ताः) वे विद्याएँ (न) नहीं (नशन्ति) नष्ट होती हैं तथा (तस्करः) चोर उनका (न) नहीं (दभाति) नाश करता है, उन विद्याओं को आप लोग ब्रह्मचर्यादि से ग्रहण करिये ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! सब के लिये अधिक सुख करने, नहीं नष्ट होने और निरन्तर बढ़नेवाले और चोर आदिकों से हरने के अयोग्य विद्यादान ही है, यह जानो ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ किमुत्तमं दानमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! याभिर्यजमानो देवान् यजते ददाति च ज्योगित्ताभिस्सह गोपतिः सचते नासामामित्रो व्यथिश्चाऽऽदधर्षति ता न नशन्ति तस्करो ता न दभाति ता यूयं ब्रह्मचर्यादिना गृह्णीत ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (न) निषेधे (ताः) विद्याः (नशन्ति) (न) (दभाति) हिनस्ति (तस्करः) चोरः (न) (आसाम्) विद्यानाम् (आमित्रः) शत्रुः (व्यथिः) व्यथा (आ) (दधर्षति) तिरस्करोति (देवान्) विदुषः (च) (याभिः) विद्याभिः (यजते) (ददाति) (च) (ज्योक्) निरन्तरम् (इत्) एव (ताभिः) विद्याभिः (सचते) समवैति (गोपतिः) गवां स्वामी (सह) ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः सर्वेभ्योऽधिकसुखकरमविनाशि सततं वर्धमानं चोरादिभिर्हर्तुमनर्हं विद्यादानमेवास्तीति विजानीत ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! विद्या सर्वांना सुखी करते. अविनाशी असते, सतत वाढते. चोर तिची चोरी करू शकत नाही, विद्याच श्रेष्ठ आहे हे जाणावे. ॥ ३ ॥